एक नाटक बेज़ुबां
राम मंदिर के लिए
चन्दा देने से इनकार किया इस लिए
देखा अघोषित बहिष्कार
सामनेवाले की नज़रों में
और खिड़की के टूटे कांच के टुकड़ों को
समेटते हुए मायूस हो गए
मायने आज़ादी के
हाथ में कस कर पकड़ी हुई
इंसानियत की मुट्ठीभर मिट्टी
कब फिसल गई हाथ से
पता भी नहीं चला
अब किन किन बातों के लिए
मनाये दिन काला
अजनबी ग्रह-तारों की
खोज में धुंधली हो गई है
आँगन की
चुटकीभर चांदनी
और आँचल की गिरह में
बाँध लिए थे जो
दो चार सिक्के सच के
बज रहे हैं भद्दी आवाज में
पैरों तले
ईमान के दरक चुके
आईने में
दीख रही है मुझे अपनी ही
टूटी हुई सूरतें हज़ार
भ्रम-विनाश की बिसात पर
अंकित हुई
और नहीं होती है हिम्मत
किसी लावारिस लडके की
गहरी धंसी हुई आँखों में
झांकने की
पानी का रंग हो रहा है लाल
और पानी से भी पतला
लोगों का लहू जमता जा रहा है
गाहे-बगाहे
रोका नहीं जा सकता
मिट्टी की तरह ही
चल-अचल लोगों के छीजने को
और बढ़ता जा रहा है आसपास
जंगल नागफनी का
दूर क्षितिज के अनंत
परदे पर हिल रही है
आवाज को खो चुके लोगों की
सिर्फ और सिर्फ परछाइयां
और बज रही है लगातार
तीसरी घंटी
किसी खत्म न होनेवाले
बेजुबां नाटक के आगाज की तरह .
मैं लेटी हुई हूँ यहाँ
मैं लेटी हुई हूँ यहाँ
इस जनम की मेरी आखिरी
उम्मीद की जगह पर
मेरे सिरहाने-पैताने
खेलनेवाले अपरूप
करोना के साथ
मैं लेटी हुई हूँ
यहाँ की सफ़ेद छत की ओर
एकटक निहारती हुई
कसाब के लिए कबूल गाय की तरह
मुझे खींचते जा रहे है
करोना के हज़ार हाथ
एक अथाह कृष्ण-विवर की तरफ
और खिड़की की कांच पर
हिल रही है इस दुनिया के
पेड़ की परछाई
हवा रोशनी और उड़नेवाली
धुल को ले कर
जीने की छोड़ दी गई उम्मीद को
जगानेवाली
मुझे दिखाई दे रहे हैं आसपास
बेहिसाब हौले दिल लोग
मौत के स्पर्श-मात्र से
पत्ते की तरह मुरझाएं हुए
लेकिन नहीं दीख रहा है
यहाँ की खिड़की से
एक भी आदमी
भविष्य की तरफ कदम उठाता
बेफिक्र चलता हुआ
मैं धो रही हूँ बार बार
हाथ पाँव नाक आँखें
और कर रही हूँ चकाचक
भीतर के अस्पर्श अंतराल को
समेटने में जिसे
लगता नहीं मास्क सैनिटाइज़र
छह फीट की अगम्य दूरी
कभी न काटी जानेवाली
जहां मैं लेटी हुई हूँ
उलटी लटकी हुई
सलाइन की खाली बोतल जैसी
बूँद बूँद निपटती हुई
और इस चरमसीमान्त
पल में
कह नहीं सकती
अपने पैरों से
चल कर आई हुई मैं
किस के पैरों पर
लौटूंगी घर
अपने अंतराल को
चकाचक पोंछ कर