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मैं लेटी हुई हूँ यहाँ: दो कविताएं

अनुराधा पाटिल

निशिकांत ठकार द्वारा हिंदी में अनुवादित

MP Pratheesh, From Soil Alphabets

एक नाटक बेज़ुबां

 

राम मंदिर के लिए 

चन्दा देने से इनकार किया इस लिए 

देखा अघोषित बहिष्कार 

सामनेवाले की नज़रों में

और खिड़की के टूटे कांच के टुकड़ों को 

समेटते हुए मायूस हो गए 

मायने आज़ादी के 

 

हाथ में कस कर पकड़ी हुई 

इंसानियत की मुट्ठीभर मिट्टी 

कब फिसल गई हाथ से 

पता भी नहीं चला 

अब किन किन बातों के लिए

मनाये दिन काला 

 

अजनबी ग्रह-तारों की 

खोज में धुंधली हो गई है 

आँगन की 

चुटकीभर चांदनी 

और आँचल की गिरह में 

बाँध लिए थे जो 

दो चार सिक्के सच के 

बज रहे हैं भद्दी आवाज में 

पैरों तले

 

ईमान के दरक चुके 

आईने में 

दीख रही है मुझे अपनी ही 

टूटी हुई सूरतें हज़ार

भ्रम-विनाश की  बिसात पर 

अंकित हुई 

और नहीं होती है हिम्मत 

किसी लावारिस लडके की 

गहरी धंसी हुई आँखों में 

झांकने की 

 

पानी का रंग हो रहा है लाल

और पानी से भी पतला 

लोगों का लहू जमता जा रहा है

गाहे-बगाहे

रोका नहीं जा सकता 

मिट्टी की तरह ही 

चल-अचल लोगों के छीजने को 

और बढ़ता जा रहा है आसपास 

जंगल नागफनी का 

 

दूर क्षितिज के अनंत 

परदे पर हिल रही है

आवाज को खो चुके लोगों की 

सिर्फ और सिर्फ परछाइयां 

और बज रही है लगातार 

तीसरी घंटी 

किसी खत्म न होनेवाले 

बेजुबां नाटक के आगाज की तरह .

 

मैं लेटी हुई हूँ यहाँ 

 

मैं लेटी हुई हूँ यहाँ 

इस जनम की मेरी आखिरी 

उम्मीद की जगह पर

मेरे सिरहाने-पैताने 

खेलनेवाले अपरूप 

करोना के साथ 

 

मैं लेटी हुई हूँ

 यहाँ की सफ़ेद छत की ओर

एकटक निहारती हुई 

कसाब के लिए कबूल गाय की तरह

मुझे खींचते जा रहे है 

करोना के हज़ार हाथ 

एक अथाह कृष्ण-विवर की तरफ 

और खिड़की की कांच पर 

हिल रही है इस दुनिया के 

पेड़  की परछाई  

हवा रोशनी और उड़नेवाली

धुल को ले कर 

जीने की छोड़ दी गई उम्मीद को 

जगानेवाली 

 

मुझे दिखाई दे रहे हैं आसपास 

बेहिसाब हौले दिल लोग 

मौत के स्पर्श-मात्र से 

पत्ते की तरह मुरझाएं हुए 

लेकिन नहीं दीख रहा है

यहाँ की खिड़की से 

एक भी आदमी 

भविष्य की तरफ कदम उठाता 

बेफिक्र चलता हुआ 

 

मैं धो रही हूँ बार बार 

हाथ पाँव नाक आँखें 

और कर रही हूँ चकाचक 

भीतर के अस्पर्श अंतराल को

समेटने में जिसे 

लगता नहीं मास्क सैनिटाइज़र

छह फीट की अगम्य दूरी

कभी न काटी जानेवाली 

 

जहां मैं लेटी हुई हूँ 

उलटी लटकी हुई 

सलाइन की खाली बोतल जैसी 

बूँद बूँद निपटती हुई 

और इस चरमसीमान्त 

पल में 

कह नहीं सकती 

अपने पैरों से 

चल कर आई हुई मैं 

किस के पैरों पर 

लौटूंगी घर 

अपने अंतराल को 

चकाचक पोंछ कर 

अनुराधा पाटिल मराठी की विख्यात कवयित्री हैं। पिछले चालीस बरसों से कवितायेँ लिख रही है। अभी तक उन के ५ कविता संकलन प्रकाशित हुए हैं और चुनी हुई कविताओं का एक संकलन हिंदी में भी छप गया है। कविता संकलन के लिए उन्हें साहित्य अकादमी का पुरस्कार (२०१९) तथा महाराष्ट्र शासन का सर्वोच्च साहित्य पुरस्कार भी प्राप्त हुआ है. पाटिल देहात से आई हैं और उनकी शिक्षा पाठशाला के स्तर पर ही सीमित रही है।

निशिकांत ठकार हिंदी और मराठी के विख्यात दो-तरफ़ा समीक्षक और अनुवादक हैं। अब तक उनकी ६० से भी ज़्यादा पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं जिनमें अनुवादों की संख्या अधिकतम है। हिंदी साहित्य और भाषा के प्राध्यापक रहे ठकार ८६ वर्ष के हैं और आज भी साहित्य में सक्रिय हैं। अभी अभी उन्होंने नामदेव ढसाल की १२५ कविताओं का तथा अरुण खोपकर की महत्वपूर्ण पुस्तक ‘अनुनाद’ का हिंदी अनुवाद और विनोद कुमार शुक्ल के ‘ खिलेगा तो देखेंगे ‘ का मराठी अनुवाद पूरा किया है और ये सभी पुस्तके मुद्रनाधीन हैं ।