ठंडी तेज़ हवाओं वाली रात के बाद चमकती धूप भरी सुबह लगभग चमत्कार-सी लग रही थी। खिड़की से बाहर पार्क में बच्चों का एक झुण्ड कई तरह के खेलों में लगा दिख रहा था।
एक बड़ी नियामत थी कि वह छुट्टी का दिन था।
मांट्रियाल के एक छोर पर बसी इस बस्ती में घर लेते हुए मुझे सबसे ज्यादा यहाँ की हरियाली और ख़ामोशी अच्छी लगी थी और यह बात भी काफी सुकून देह थी कि मेट्रो का स्टेशन पास ही था। यों तो यहाँ से बसें भी गुजरती थीं जो शहर हर हिस्से में पहुँचा सकती थीं, लेकिन मैट्रो में सफर करना ज्यादा पसन्द था। मेट्रो की भूमिगत दुनिया मुझे एक अजीब किस्म की आत्मीयता का अहसास देती थी।
उस दिन मुझे ख़रीदारी के लिए सेंट जूलियन जाना था।
ऱफ्ता-ऱफ्ता तैयार होकर मैं बाहर निकली। मेट्रो स्टेशन में दाख़िल होते हुए मैंने सोचा, ज़मीन के अन्दर की इस दुनिया में इतने सारे लोग थके, उत्तेजित, मुरझाए, खिले और न जाने किन-किन मन:स्थितियों को लिये आते हैं और फिर एक मौन में घिर जाते हैं। शुरू के दिनों में मौन में घिरे ये लोग मुझे अजनबी होने की प्रतीति कराते लगते थे। ये इतने चुप क्यों हैं, मैं अक्सर सोचती। किसी किताब या अख़बार के पन्नों पर निगाह टिकाये या शून्य में देखते ये लोग मुझे अस्वाभाविक से लगते। फिर मुझे उनकी चुप को सहजता से स्वीकार करने की आदत हो गई। यह भी लगता कि उनकी जिन्दगी में सब कुछ इतना प्रकट और उजागर है कि छिपाने के कई तरह के नामालूम से खेल उनकी ज़रूरत बन गए हैं। मेट्रो में तमाम चुप लोगों का यह हुजूम मुझे सचमुच किसी अघोषित खेल में मुब्तिला जान पड़ता था। उनकी इस चुप में और बीच-बीच में एक-दूसरे को देखकर हल्के-हल्के मुस्कुराने में एक ख़ास तरह की गरिमा भी दिखती थी। कुछ चेहरों को देखते हुए कभी-कभी यह भी लगता कि यह व्यक्ति अपनी निजता को बचाये रखने के लिए शायद अतिरिक्त कोशिश कर रहा है।
मैं जिस डिब्बे में घुसी वहाँ भीड़ नहीं थी। शायद छुट्टी का दिन होने की वजह से लोग अलसाये अपने घरों में बन्द होंगे, मैंने सोचा। एक खाली सीट पर बैठने को बढ़ी तो बैठते-बैठते मुझे बग़ल की लड़की की ख़ूबसूरती असाधारण लगी। हमारी निगाहें मिलीं तो वह मुस्कुराई। उसकी मुस्कुराहट में आश्वस्ति और ख़ुशी का मिला-जुला भाव था। शायद इसलिए भी कि हम दोनों एशियाई थे। हाँ, जिस तरह मैं उसके काले बालों और काली आँखों से यह समझ गई थी, वह भी समझ गई होगी। मेरी जगह वहाँ और कोई जा बैठता तो ऐसी प्रतिक्रिया न होती। वहाँ रो-रोकर आँखें सुजाए कोई और लड़की होती… या कोई ड्रगऐडिक्ट जो उसकी ख़ूबसूरती से बिल्कुल बेख़बर अपनी धुँधली दुनिया में आँखें मूँदे गुम होता… या फिर कोई बूढ़ी औरत जो उसे बिना वजह बार-बार शक की निगाह से देखती…।
बैठते ही मुझे लगा कि वह मुझसे बातें करना चाहती है। शायद वह बहुत अकेली है। यह अनुमान एक अतीन्द्रिय-बोध सरीखा था जिसकी व्याख्या सम्भव नहीं होती।
उसकी मुस्कुराहट के जवाब में मैं मुस्कुराई और अनायास मेरा हाथ उसकी तरफ बढ़ गया। उसने लपककर मेरा हाथ कुछ यों पकड़ा जैसे हम सदियों से एक-दूसरे को जानते हों। उसने बताया कि वह ईशा है, सेंट जूलियन में रहती है… और इन दिनों अकेली है। मैंने उसे अपने बारे में बताया कि मैं यहाँ क्या कुछ करती हूँ कहाँ रहती हूँ और यह भी कि सेंट जूलियन में उसके घर के पास की एक गली में खाने-पीने की चीज़ों की एक दूकान है और मैं अक्सर वहाँ से खुबूस-हुमूस और फिलाफिल जैसी अपनी पसन्द की चीज़ें लिया करती हूँ।
ईशा मुस्कुराई। उसकी मुस्कुराहट की ऊष्मा को मैंने कहीं बहुत गहरे महसूस किया। उसने बताया, वह लेबनान की है।
“मैं तुम्हें अरबी खाना खिला सकती हूँ।” वह बोली, “और यकीन करो तुम्हें मेरे हाथ का खाना पसन्द आएगा।”
मैं हँस पड़ी, “अच्छे खाने के लिए तो मैं घंटे-भर का संघर्ष भी कर सकती हूँ। तुम्हारा घर तो पास ही है।” मैंने कहा।
ईशा ने कहा कि वह मुझे ‘बाशा’ भी ले जा सकती है। ‘बाशा’ मांट्रियाल का सबसे लोकप्रिय अरबी रेस्तराँ हैं। ईशा उसके मालिक को जानती थी और उसके लिए हमेशा उसकी पसन्द की टेबल का इन्तज़ाम हो जाता था।
मैंने ग़ौर किया कि हमारी बातचीत के दौरान उसके चेहरे की पारदर्शी त्वचा पर ख़ुशी का रंग कुछ यों आ रहा था जैसे वह फूल की तरह खिल उठी हो। उसने मज़ाक के लहजे में कहा, “पढ़ने-लिखने वालों की यह बीमारी आम है कि वे अपना सारा वक्त पढ़ने-लिखने या संगीत सुनने में लगाना चाहते हैं और चाहते हैं कि किसी और का पकाया अच्छा खाना मिल जाये…, वे इसे अपना अधिकार समझते हैं शायद…।”
उसके इस हल्के शरारती अन्दाज़ पर मैं मुस्कुराकर रह गई। अन्दर-अन्दर मैं कुछ असहज-सी भी हुई। पढ़ने-लिखने वालों को यह लड़की कहीं पैरासाइट तो नहीं समझती।
कुछ पलों की ख़ामोशी को महसूस करते हुए मैंने ख़ुद ही बातचीत का रुख़ मोड़ने की कोशिश की।
“तुमने कानों में जो पहन रखा है, बड़ा सुन्दर है।”
उसके चेहरे पर अचानक सलेटी बादल से घिर आए। वह थोड़ी देर बिल्कुल ख़ामोश सामने की तरफ देखती रही। फिर कहा, “यह उपहार है। जिसने मुझे यह दिया वह अब इस दुनिया में नहीं। कुछ साल हुए… गर्मियों में वह लेबनान गया था… और मारा गया।”
हम दोनों ख़ामोश हो गए। एक लम्बी गहरी साँस लेते हुए जिसमें अफसोस भरा था, उसने कहा, “काश! तुमने मेरा लेबनान देखा होता… वह कितना सुन्दर था! इज़रायली हमलों ने उसे किस कदर बर्बाद किया… तुम अन्दाज़ा नहीं कर सकतीं। अमेरिका की शह पर ज़ायनिस्टों ने उसे मलबे के ढेरों में तब्दील कर डाला…, लगातार तबाही और बर्बादी… लगातार आशंका और मौत…, बेशुमार लोगों की मौत।… कल तक जो जि़न्दगी में शामिल था, बेवजह ग़ायब हो जाये तो कैसा लगता है!…”
ईशा स्मृति के घने वन में थी।
“लेबनान इतना सुन्दर था कि उसे मध्य-पूर्व का पेरिस कहते थे। उन दिनों यूरोप या अमेरिका आने का ख़याल भी किसी के दिल में नहीं आता था। लेबनान अरबों का बहिश्त था…।”
ईशा ने बताया कि लेबनान में, ख़ासकर बेरूत का सुसंस्कृत तबकाफ्रैंकोफाइल है। फ्रेंच भाषा ख़ुद उसके परिवार में आम इस्तेमाल की भाषा थी। इसीलिए जब इज़रायली हमलों की वजह से जि़न्दगी के शीराजे बिखरने लगे तो परिवारवालों ने पढ़ाई के लिए ईशा को मांट्रियाल भेज दिया था। उसके आने के बाद एक-एक कर उसके परिवार के ज्यादातर सदस्य मारे गए। बाद में माँ और पिता भी। ईशा ने अपनी रुँधी आवाज़ को संयत करते हुए कहा, “वे पॉलिटिकल लोग थे। मैं अपने पिता को एक बहादुर अरब की तरह याद करती हूँ। माँ की याद अक्सररुला देती है…, वह बेहद पीड़ा में मरी।”
हमारी बातचीत में मेरी तरफ से अब किसी सवाल की गुंजाइश न थी। ईशा को अपनी कथा कहनी थी और मुझे सुनते जाना था। मन को मरोड़ती हुई उसकी कथा मुझे दहला रही थी।
“जब मैं मॉस्ट्रियाल आई तो यहाँ मेरी बुआ का लड़का भी था—हम्माद। उसका साथ मेरे लिए सब कुछ था। बचपन से हम एक-दूसरे को जानते थे। उसे अनगिनत अरबी गीत याद थे। उसका प्यार और उसके गीत मेरे लिए मेरा छूटा हुआ बेरूत रच देते थे…–हम दोनों बेहद ख़ुश थे। वह मेरा मंगेतर बना। फिर वह जि़द करके बेरूत गया।… अब तो बस कान की ये बालियाँ ही बची हैं।”
मुझे लगा, मैं धीरे-धीरे दु:स्वप्न सरीखे उसके अतीत में शरीक हो रही हूँ। अनजाने ही। इतने हादसों से गुज़रकर आई इस लड़की को मैं क्या दे सकती हूँ…–कोई सांत्वना? किस तरह?
मैं उसकी गोद में निश्चेष्ट पड़े उसके हाथों की तरफ देख रही थी। नहीं, वे हाथ बिल्कुल स्थिर नहीं थे। उँगलियों में कम्पन-सा दिख रहा था। अचानक मेरी निगाह उसके चेहरे पर गई। उसकी आँखें डबडबाई हुई थीं। मैं उसके चेहरे पर निगाहें टिकाये रही—ख़ूब जानती हुई कि मेरी भाषा में उसके लिए इस वक्त सारे शब्द नाका़फी थे।
आँखों को पोंछने की कोई कोशिश उसने नहीं की। वह मुस्कुराई और फिर मुझे आश्वस्त करते से अंदाज़ में बोली, “ऑल दिस वाज ए लांग टाइम बैक…” फिर मैंने नये सिरे से जिन्दगी शुरू की, नये तौर से जीना सीखा। मुझमें एक नई ईशा पैदा हुई। मेरे कई प्रेमी बने। उनमें से हर एक को अन्तरंगता में जानना मेरे लिए बिल्कुल नया अनुभव रहा। उनमें से कुछ अब मेरे भरोसेमन्द दोस्त हैं। हर बार जब कोई नया प्रेम मेरे जीवन में आता है तो उसे मैं नये वसन्त की तरह महसूस करती हूँ। मुझे लगता है, सम्बन्धों से औरत को घबड़ाना नहीं चाहिए… और न ही किसी सम्बन्ध के टूटने-बिखरने का मातम मनाना चाहिए,… अपने अन्दर की स्वाधीनता महसूस करने में दु:ख बहुत बड़ी बाधा है।”
मैं कुछ बोली नहीं। दरअसल ईशा अब मेरे लिए एक हैरतअंगेज़ किस्म का अनुभव बनती जा रही थी। शायद मेरे मन की उलझन को महससू करते हुए थोड़े नाटकीय ढंग से उसने कहा, “मैं बहुत अच्छी प्रेमिका हूँ। जब मैं प्रेम करती हूँ तो मुझमें सोया हुआ कोई समुद्र जागता है… अपनी तेज़ लहरों के साथ…। लेकिन मैं एकबारगी बेहद ठंडी और विरक्त भी हो सकती हूँ। बिल्कुल कोई और ही ईशा…।”
वह हँसी, फिर बोली, “मैं स्कॉरपियन हूँ। कई बार एक झटके में मैंने चीज़ों को ख़त्म किया है। मैंने लगातार ख़ुद से संघर्ष करने का तरीका सीखा… हम अगर ख़ुद से युद्ध नहीं करते तो बाहर की दुनिया हम पर जाने कैसे-कैसे युद्ध थोप देती है।”
मुझे उसकी बातें अब पहेलीनुमा लगने लगी थीं। मैंने पूछा, “तुम किस संघर्ष की बात कर रही हो? प्रेम के लिए… उसे बचाये रखने के लिए… उसे परिभाषित करने के लिए… या तुम कोई और बात कह रही हो जो संस्कृति, राजनीति या व्यापक समाज से ताल्लुक रखती है?”
ईशा ने सादगी से कहा, “…बस जीवन को जीने के लिए… हम जब अपने विरुद्ध होना सीख जाते हैं तभी हम सच को पाते हैं, वर्ना हालात का अपना धुँधलका हमारे आस-पास छाया रहता है जिसमें आगे बढ़ने की राह नहीं सूझती… न ख़ुशी के दिनों में और न पीड़ा में…”
ईशा फिर से गम्भीर हो आयी थी। मैं कुछ बोलना चाहती थी कि अपनी रौ में उसने कहा, “मैं तुम्हें स्वाधीन होने का अपना पहला अनुभव बताऊँ। हम्माद की मौत के बाद जो प्रेमी मेरी जिन्दगी में आया उससे जब मैंने सम्बन्ध ख़त्म किया तो मुझे अचानक अजीब-सा सुकून महसूस हुआ। मैंने पाया कि अब किसी और के कपड़े सँभालने नहीं पड़ते, आलमारी से तौलिया निकालकर उसे नहीं देना पड़ता, उसके नहाने के बाद बाथरूम में बिखरे साबुन, शैम्पू, मग वगैरह को वापस उनकी जगह पर नहीं रखना पड़ता… और ऐसी ही बेशुमार चीज़ों से मैं एकबारगी निजात पा गई। इसके बाद मैंने तय किया कि प्रेम करने के लिए साथ रहने की ज़रूरत नहीं होनी चाहिए। सिर्फ बिस्तर एक होना चाहिए… चाहे उसका या अपना…”
सेंट जूलियन का स्टेशन आ गया था। हम दोनों मेट्रो से साथ बाहर निकले। धूप के बावजूद ठंडी हवाएँ लौट आयी थीं।
कुछ कदम चलकर मैं ठिठकी। हम यहाँ एक-दूसरे से विदा ले सकते थे। ईशा अपने हैंडबैग में कुछ ढूँढ़ रही थी। उसने चाबी का एक गुच्छा निकालते हुए कहा, “अक्सर मैं दोस्तों के घर अपनी चाबी भूल आती हूँ। आज भी अगर ऐसा होता तो मैं तुम्हें अपने घर कैसे ले जा पाती!”
मैं थोड़ी आश्वस्त हुई। चलो कम-से-कम इस शहर में कोई तो ऐसा है जो अपने घर ले जाना चाहता है किसी को। यहाँ तो लोगों के घर जैसे संदिग्ध जगहें हैं। वे अपने घरों में अपने मित्रों या परिचितों से नहीं मिलते। सहजता के ऊपरी आवरण के बावजूद उनके जीवन में शायद कुछ भी अनौपचारिक नहीं।
ईशा का अपार्टमेंट सुन्दर था। हर चीज़ करीने से अपनी जगह पर थी। इस घर में फैली लहसुन की महक यह बता रही थी कि ईशा घर में खाना बनाया करती है। उसके गहरे लाल रंग के सोफे के किनारों पर सुनहरा बॉर्डर था। दीवारों पर लगे चित्र और गुलदान ज्यादातर अरबी थे। उसकी शख्सियत से लेकर रिहाइश की इस जगह तक लेबनान और मांट्रियाल बेहद दिलचस्प ढंग से मिले हुए थे।
ईशा ने कॉफी बना ली थी। कॉफी वह नीले काँच के कपों में लाई थी। उन कपों पर भी सुनहरी किनारी थी। एक नक्काशीदार मेज़ पर कॉफी रखते हुए नाटकीय अंदाज़ में उसने कहा, “यह मेज़ अखरोट की लकड़ी की है। पहचानो, कहाँ की है?” मेरे जवाब का इन्तज़ार किए वगैर खुद बोली, “कश्मीरी है। तुम भी तो कश्मीरी हो ना…।”
मैंने कहा, “नहीं।”
“मगर मुझे लगती हो। तुम जैसी गोरी लड़कियाँ तो कश्मीरी ही होती हैं।” उसने मेरी ओर अविश्वास से देखा।
मैं चुप रही। भारत की विविधता के बारे में बताने का अभी मेरा मन नहीं था। यों भी, यहाँ जिसे देखो अपने देश का इतिहास और भूगोल समझाने में लगा रहता है। मुझे ऐसी बातें बेहद उबाऊ लगती थीं। मैं वह खच्चर नहीं बनना चाहती थी जो राष्टवाद का बोझा पीठ पर िलये चलता हो। वैसे भी मुझे लगता मैं ख़ुद ही भारत को ठीक से नहीं जानती। यदि दूसरों को इसके बारे में समझाने लगूँ तो शायद ख़ुद ही उलझ जाऊँ। इतनी मुश्किलें हैं इस देश की…
मुझे यूँ गड्डमड्ड देख ईशा परेशान-सी हुई। “तुम ठीक-ठाक हो न?” उसने पूछा।
मैंने सिर हिलाकर हाँ में जवाब दिया।
उसने आखि़र पूछा, “तुम्हें मेरा अपार्टमेंट पसन्द आया?”
मैंने कहा, “बहुत।”
लेकिन यहाँ आकर मैं भीतर-ही-भीतर काफी अस्त-व्यस्त-सी हो गई थी। यह सोचकर भी मुझे भयानक अकेलेपन का अहसास होने लगा था कि ईशा के माँ-बाप, भाई-बहन, यहाँ तक कि एकमात्र कज़ॅन जो उसका मंगेतर था, सब मारे जा चुके हैं। यह चालीस–एक साल की औरत जिसने अपना यह अपार्टमेंट गाढ़े लाल और सुनहरे रंग के सोफे से सजा रखा था, जिसकी आँखें मिनट-मिनट में डबडबा जाती थीं और जिसके होंठ तब भी मुस्कुराते थे, जो मुझे मुक्ति का रहस्य समझा रही थी, वाकई अकेली थी। मेरे भीतर अनायास ही जैसे एक उदासी दाखिल हो गई थी। ईशा का आगे का कम-से-कम तीस-चालीस साल का जीवन मुझे ही पहाड़-सा लगने लगा था। इस बात से भीतर-ही-भीतर मैं हैरान थी, कैसे मैंने इस अजनबी लड़की की तरफ हाथ बढ़ाया और कैसे उसने उसे एक ज़रूरी चीज़ की तरह लपक लिया। उसकी हथेलियों में एक पुकार थी, एक सच्ची पवित्र पुकार कि मेरी दुनिया में शामिल होकर मेरे हालात की तरतीब और बेतरतीबी को देखो…
कॉफी के प्याले ख़ाली थे। ईशा खिड़की से बाहर देख रही थी। मैंने उसे ग़ौर से देखा और जान लिया कि जब तक हम मांट्रियाल में हैं, हमें मिलते रहना होगा। ईशा भी जैसे यह सब समझ रही थी। उसे मालूम था अनगिनत प्रेमी तो आते-जाते रहेंगे जीवन में लेकिन आज अनायास ही मिली यह आत्मीयता उसके लिए कभी न खोने वाली उपलब्धि थी। ईशा ने मेरी तरफ निगाह घुमाई और धीमे कदमों से उसने हमारे बीच की दूरी पार की।
उसने मेरा हाथ दो मुट्ठियों में भरा और मुस्कुराई।
अक्टूबर के आखिरी सप्ताह में, उस दिन और उन पलों में वह दुनिया की सबसे सुन्दर मुस्कान थी।