एक थी पदमा नदी
अल्हड़, आवारा या बदचलन?
अनगिन महबूब नहीं थे उसके
बस दो आशिक़ों की माशूका थी
एक का नाम हिन्द,दूसरा बंग था
उनके बीच इतनी बार डोलती
कभी इसके आग़ोश में कभी उसके
लगता सौ पचास के साथ सो ली
जब जब वह आशिक़ बदलती
आफ़त आ जाती
कगार टूट टूट कर गिरते
झोंपड़े तिनकों से उड़ जाते
मछलियाँ रेत पर तड़पतीं
पदमा इतराती अठखेलियाँ करती
उत्ताल लहरों के आलिंगन से
मछुआरे बमुश्किल जान बचाते
कुदरत कहती अल्हड़ है
सम्भल जाएगी भटकना छोड़
एक की बाँहों में सिमट जाएगी
पदमा न बदली,न सम्भली
कुदरत का सब्र चुक गया
वायु से कहा उठा चक्रवात
पदमा समझ जाए,बंदिश
लगाने को कोई है
वायु ने चक्राकार उछाला
समन्दर की हिलकोरा खाती तरंगों को
पदमा खिलखिलाई चलूँ उस ओर
इधर समन्दरी झंझावात उठ आया
जैसे ही पलटी पीछे से किसी ने
जिस्म उसका दबोच लिया
वह गुस्से से फनफनाई छोड़ो बंग
वह साँस घोटती दानवी जकड़
उस नफ़ीस महबूब की नहीं थी
विकराल अम्फन घात लगाये बैठा था
जैसे ही हवा ने चक्रवात उठाया
जबड़े खोल उसे निगल लिया
विकट राक्षसी ताक़त से लैस बाहर
उगला, कि क़यामत आ गई
समुद्री बेला की ऊँचाई पहाड़ों से
होड़ लेने लगी तूफ़ान का वेग ऐसा
पहाड़ों को चक्राकार घुमा दे
एक बाँह की जिन्नाती गिरफ़्त में
सिर धुनती पदमा को जकड़े
समन्दरी तरंगे उछाल
धरती धराशायी कर
ऐसा ताण्डव किया अम्फन ने
कि शिवशंकर त्राही त्राही कर उठे
दोनों आशिक़ों के पाँव तले कगार धसके
कि समन्दर सदाबहार पर काबिज़ हुआ
वे तटीय हिन्द-बंग के जादुई सुन्दरबन
वे नायाब जड़ी-बूटियाँ, पेड़-पौधे
वे जीव जन्तु, परिन्दे, सरीसर्प
वे सुन्दरी,गगंवा,निपा के पेड़
वे शेर,जंगली बिल्ली,चीतल,ऊद
जल किरात, अजगर,कोबरा, कच्छप
वे सफ़ेद सारस,बाज़,हार्नबिल,सुर्ख़ाब
वे रंग बिरंगे दमकते कौड़िल्ला
वह पदमा की मदमाती चाल
वह ज़िन्दगी की थिरकन
आह, नेस्तनाबूद हो गये
और इंसान…कहाँ गये इंसान…
वह कबीलों से विलगे आदीवासी
वह जंगल में कच्चे घरों के निवासी
वह समन्दर में बेख़ौफ़ उतरे मछुआरे
वह सांवले सलोने ज़मीनी इंसान…
तबाह कर सुन्दरबन
वायु का वेग धीमा पड़ा
तरंगों का उठान कम हुआ
पेट भरे अजगर सा अम्फन
जिस्म ढ़ीला छोड़ सो रहा
कब तलक…पर …कब तलक …
Here is a video of Mridula Garg reciting ‘एक थी पदमा नदी’ as part of the Kritya International Poetry Festival, 2020: