Conrad Marca-Relli, ‘The Battle’, oil cloth, tinted canvas, enamel paint, and oil on canvas, 179.1 cms x 331.5 cms, 1956/ Image courtesy The Metropolitan Museum of Art
A country in which citizens are murdered or attacked for being rational, for being critical, for raising voices of dissent, for just being themselves; for being Muslim or Dalit or women. Intimidation, threats. Hatred. Lynching. Sickening violence. Students and teachers compelled to choose between being leashed in thought and word and being hounded as seditious. Institutions built over the years weakened. Economy and development turned into exercises that mock the needs and aspirations of most people in this country. Secularism, scientific temper and rights promised in our Constitution subverted every day. Our democracy, our India, frayed.
But this is our country. It belongs to us, and we belong to it. We have each other for support. We have our poems and songs and films and essays and fiction and art. Our diverse voices.
What kind of India do we want?
Listen to our fellow citizens speak of the country they don’t want and India they want in the series India 2019 on Guftugu and the Indian Cultural Forum.
K. Satchidanandan
Githa Hariharan
September 2018
ज़र्द पत्तों का बन
ज़र्द पत्तों का बन जो मेरा देस है
दर्द की अंजुमन जो मेरा देस है
जब पढ़े थे ये मिसरे तो क्यों था गुमाँ
ज़र्द पत्तों का बन, फ़ैज़ का देस है
दर्द की अंजुमन, फ़ैज़ का देस है
बस वही देस है,
जो कि तारीक है
बस उसी देस तक है
खिज़ाँ की डगर
बस वही देस है ज़र्द पत्तों का बन
बस वही देस है दर्द की अंजुमन
मुझ को क्यों था यक़ीं
के मेरे देस में
ज़र्द पत्तों के गिरने का मौसम नहीं
मुझ को क्यों था यक़ीं
के मेरे देस तक
पतझड़ों की कोई रहगुज़र ही नहीं
इस के दामन पे जितने भी धब्बे लगे
अगली बरसात आने पे धूल जाएँगे
अब जो आया है पतझड़
मेरे देस में
धड़कने ज़िंदगी की हैं
रुक सी गयीं
ख़ंजरों की ज़बान रक़्स करने लगी
फूल खिलने पे पाबंदियाँ लग गयीं
क़त्लगाहें सजाई गईं जा-ब-जा
और इंसाफ़ सूली चढ़ाया गया
ख़ून की प्यास इतनी बढ़ी, आख़िरश
जाम-ओ-मीना लहू से छलकने लगे
नाम किसके करूँ
इन ख़िज़ाओं को मैं
किस से पूछूँ
बहारें किधर खो गयीं
किस से जाकर कहूँ
ज़र्द पत्तों का बन, अब मेरा देस है
दर्द की अंजुमन, अब मेरा देस है
ऐ मेरे हमनशीं
ज़र्द पत्तों का बन, दर्द की अंज़ूमन
आने वाले सफ़ीरों की क़िस्मत नहीं
ये भी सच है के उस
फ़ैज़ के देस में
चाँद ज़ुल्मत के घेरे में कितना भी हो
नूर उसका बिखरता था हर शब वहाँ
पा-बा-जोलाँ सही, फिर भी सच है यही
ज़िंदिगी अब भी रक़साँ है उस देस में
क़त्लगाहें सजी हैं अगर जा-ब-जा
ग़ाज़ीयोंकी भी कोई, कमीं तो नहीं
और मेरे देस में
रात लम्बी सही,
चाँद मद्धम सही
मुझ को है येयक़ीं
ख़लक़ उट्ठेगी हाथों में पर्चम लिए
सुबह पाज़ेब पहने हुए आएगी
रन पड़ेगा बहारों-ख़िज़ाओं का जब
रंग बिखरेंगे, और रात ढल जाएगी
ज़र्द पत्तों का बन भी सिमट जाएगा
दर्द की अंजुमन भी सिमट जाएगी
– गौहर रज़ा
ज़र्द = पीला; अंज़ूमन = संस्था; मिसरे = पंक्तियाँ; तारीक = अँधेरा; ख़िज़ान = पतझड़; रहगुज़र = रास्ता; रक़्स = नाच; क़त्लगाहें = क़त्ल करने की जगह; आख़िरश = आख़िर में; हमनशीं = साथी, दोस्त; सफ़ीर = दूत; ज़ुल्मत = अँधेरा; नूर = रौशनी; पा-बा-जोलाँ = बेड़ियों में पैर; रक़साँ = नृत्य करती; जा-ब-जा = जगह-जगह; ग़ाज़ी = जान की बाज़ी जीतने वाले; ख़लक़ = जनता; रन = टकराओ, युद्ध.