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Judge Sa’b

Uday Prakash

W.H.F. Talbot, ‘Thapsia asclepium from Corfu’ / Metropolitan Museum

 

If the Hindi isn’t displaying correctly you can download the pdf here.  Jason Grunebaum’s translation appears below the original.

 

जज सा’ब

 

नौ साल हो गये, उत्तरी दिल्ली के रोहिणी इलाके में तेरह साल तक रहने के बाद, अपना घर छोड़ कर, वैशाली के इस जज कालोनी में आये हुए. यह वैशाली का ‘पाश’ इलाका माना जाता है. उत्तर प्रदेश की सरकार ने न्यायाधीशों के लिए यहां प्लाट आवंटित किए थे. ऐसे ही एक प्लाट पर बने एक घर में मैं रहता हूं.

जिस सड़क पर यह अपार्ट्मेंट बना है, उसका नाम है – ‘न्याय मार्ग’. हांलाकि इस सड़क में जगह-जगह गड्ढे हैं, हर तीन कदम पर यह सड़क उखड़ी-पुखड़ी है और कई जगह से ‘वन वे’ हो गयी है, क्योंकि बिल्डर्स ने कई जगह सड़क के ऊपर ही रेत, ईंटें, रोड़ी-गिट्टी, सरिया-पाइप के ढेर लगा रखे हैं. नतीज़ा यह कि हर रोज़ यहां ‘वन वे’ की वजह से एक्सीडेंट होते रहते हैं और कोई कार्र्वाई इसलिए नहीं होती कि बिल्डर्स और ठेकेदारों के पास बहुत रुपया और ऊपर तक पहुंच है.

इसी कालोनी में रहने वाले एक रिटायर्ड न्यायाधीश का पोता इसी ‘वन-वे’ पर एक डंपर के नीचे आ गया था और तीन महीने तक अस्पताल में रहने के बाद उसकी मौत हो गयी थी.

लेकिन वे बिल्डिंगें अभी भी बन रही हैं. डंपर और ट्रक अभी भी चल रहे हैं. वैशाली का ‘न्याय मार्ग’ अभी भी गड्ढों-हादसों से भरा हुआ ‘वन वे’ है.

वी.आई.पी. जज कालोनी बहुत तेज़ी से ‘डवलप’ होती कालोनी है. नौ साल पहले जब मैं यहां आया था, तब दो किलोमीटर की दूरी तक सिर्फ़ दो शापिंग माल थे. अब इक्कीस बड़े-बड़े बहुमंज़िला माल, दो इंटरनेशनल फ़ाइव स्टार होटल और शेवरले से लेकर ह्युंडई और सुज़ुकी कार कंपनियों के जगमगाते शो रूम हैं.

नौ साल पहले जब मैं यहां आया था, तब यहां जंगल और खेत हुआ करते थे. सरसों और गेहूं-बासमती के खेत. मोहल्लों में रहने वाले रुई धुनकने वाले धुनकिये, गोबर के उपले पारतीं औरतें, लोहे की कड़ाहियां, चिमटे, खुरपी बनाने वाले लोहार और उनकी कोयले की आग से सुलगतीं धौंकनियां, सबेरे-सबेरे सुअर का शिकार करने वाले लोगों के जत्थे, खुले में दिशा-फ़राक़त करती हुईं निर्लज्ज गरीब औरतें चारों ओर थीं.

पास में ही, नहर के किनारे-किनारे उगी झाड़ियों से सुनसान जगहें यहां ‘एनकाउंटर ग्राउंड’ हुआ करती थी, जहां ‘अपराधियों’ को पकड़ कर रात में पुलिस गोली मारती थी और अगली सुबह अखबार में डाकुओं या आतंकवादियों के साथ हुए पुलिस की साहसिक मुठ्भेड़ की खबरें छपा करती थीं.

लेकिन अब तो इन बीते नौ वर्षों में सब कुछ बदल गया है. जैसे किसी लंबी फ़िल्म का कोई बिल्कुल दूसरा शाट परदे पर अचानक आ गया हो.

इस कालोनी में बहुत से न्यायाधीश रहते हैं. कुछ रिटायर्ड और कुछ अभी भी अलग-अलग अदालतों में न्याय देने की नौकरी करते हुए.

बगल में ही एक पार्क है. सुंदर-सा. सुबह-सुबह जब कभी वहां घूमने जाता हूं, तो हर सुबह कई जजों से मुलाकात होती है. जो बूढ़े हो चुके हैं, वे अधिक चल नहीं पाते या फिर धीरे-धीरे छड़ी के सहारे चलते हैं. एक-दो के साथ उनका कोई सहायक भी होता है, उन्हें गिरने से बचाने के लिए. या अचानक दिल का दौरा पड़ने पर तुरंत उन्हें अस्पताल पहुंचाने के लिए. ये जज अब अपनी कोठियों में अकेले रहते हैं. कुछ अपनी पत्नियों के साथ और कुछ बिल्कुल अकेले. उनके बच्चे बड़े होकर दूसरे शहरों या देशों में चले गये हैं, जो साल-दो साल में कभी-कभार कुछ दिनों की छुट्टियों में यहां आगरा, शिमला, नैनीताल, दार्जीलिंग वगैरह घूमने आते हैं. एक अकेले रह गये बूढ़े जज का कहना है कि पता नहीं उनकी अमेरिकी बहू और उनके बेटे को इंडियन चिड़ियों का इतना क्रेज़ क्यों है कि जब भी दो-चार साल में वे आते हैं तो दो-चार दिन उनके साथ रह कर भरतपुर और राजस्थान की बर्ड्स सैंक्चुअरी देखने निकल जाते हैं. वे धीरे से कहते हैं, ‘पता नहीं क्या ऐसा है इन चिड़ियों में कि मैं अपनी ज़िंदगी, नौकरी, न्याय और अदालत से ऊब गया, लेकिन वे लोग चिड़ियों से नहीं ऊबे.’ इसके बाद एक लंबी उदास सांस भर कर वे कहते हैं, ‘मुझे अच्छी तरह से पता है कि मेरे बेटे और उसकी फेमिली मुझे नहीं, इंडिया में चिड़ियां और पुरानी इमारतें देखने आती है.’

इन बूढ़े जजों का इस तरह चलना देख कर लगता है, जैसे उनका पूरा शरीर अतीत की असंख्य स्मृतियों के वज़न से लदा हुआ है और यह उनका बुढ़ापा नहीं, स्मृतियों का भार ही है, जिसे वे संभाल नहीं पा रहे हैं और किसी कदर ढो रहे हैं. मैंने देखा है, अक्सर वे बहुत जल्दी थक कर पार्क में बनी किसी बेंच पर बैठ जाते हैं. वहां भी उनका माथा किसी बोझ से नीचे की ओर गिरता हुआ दिखता है.

बहुत भार होगा ज़रूर उसके ऊपर. ‘हार्डडिस्क’ भर चुकी होगी.

क्या वे अपने पिछले दिनों में किये गये किसी फ़ैसले के बारे में दुबारा सोच रहे होते हैं ? पछतावे से भरे हुए.

कई बार उनकी मिचमिचाती बूढ़ी हो चुकी आंखों से आंसू की कुछ बूंदें लकीर बनाती हुईं उनका चेहरा भिगा देती हैं. वे ज़ेब में रखा हुआ कोई बहुत पुराना, मटमैला हो चुका रूमाल निकाल कर झुर्रियों से भरा अपना चेहरा और चश्मा धीरे-धीरे पोंछते हैं.

लेकिन जो न्यायाधीश अभी भी उतने जर्जर और बूढ़े नहीं हुए हैं, वे पार्क में अपने जागिंग सूट और स्पोर्ट्स शू के साथ तेज़ कदमों से टहलते हैं. वे किसी न किसी जल्दबाज़ी में हैं. उन्हें शायद कोई फ़ैसला सुनाना है. कोई न कोई मामला उनकी अदालत में विचाराधीन है और वे उसकी गुत्थियां अपने टहलने की बेचैन रफ़्तार में सुलझा रहे होते हैं.

इन सभी जजों के पास बहुत से किस्से हैं. सैकड़ों-हज़ारों. अनंत. सच और झूठ के उलझे हुए ऐसे मामले, जिनके बारे में अपने दिये गये फ़ैसलों को लेकर उन्हें अभी भी असमंजस है. अगर मैं आपको उन सारे किस्सों को अलग-अलग सुनाना शुरू करूं तो एक कोई ऐसा उपन्यास बन जायेगा, जिसे पढ़्ने के बाद आपका विश्वास सच, झूठ, न्याय, अन्याय सबसे उठ जायेगा.

मेरा तो उठ चुका है इसीलिए दरगाहों, जंगलों, बच्चों और मंदिरों में ज़्यादा समय बिताता हूं. न्यायाधीश मुझे असहाय और न्यायालय कोई रोज़गार और वेतन देने वाले किसी बहुत पुराने माल या स्मारक की तरह लगते हैं.

ओह! लेकिन मैं किस्सा तो जज सा’ब का सुनाने जा रहा था, जिनका हमारे जज कालोनी में तो अपार्ट्मेंट नहीं था, वे कहीं दूसरी जगह, किसी दूसरे सेक्टर में रहते थे, लेकिन नौ साल पहले जब मैं यहां आया था, तब से उनसे मुलाक़ात होती रहती थी. उनका असली, औपचारिक नाम जो भी रहा हो, सब लोग उन्हें ‘जज सा’ब’ ही कहते हैं.

*

हर सुबह ठीक नौ बजे, जज सा’ब सुनील की पान की दूकान पर मिलते थे. हमेशा ताज़गी से भरे और मुस्कुराते हुए. पचास के कुछ पार रही होगी उनकी उम्र, लेकिन चश्मा नहीं लगाते थे.

‘नमस्कार ! कैसे हैं सर जी ?’ यह उनका पहला वाक्य होता था. ‘मैं ठीक हूं, जज सा’ब. आप कैसे हैं ?’ यह हमेशा मेरा पहला जवाब होता था. ‘मैं वैसा ही हूं, राइटर जी, जैसा कल था.’ यह भी उनका हर बार का उत्तर था.

‘हम सब भी वैसे ही हैं, जैसे कल थे !’ मेरे यह कहने पर जज सा’ब ही नहीं, सुनील की पान की दूकान पर खड़े सारे लोग हंसने लगते थे. यह भी हर बार का मेरा उत्तर था और सब का हंसना भी हर बार का हंसना था.

यह, सच था. चारों ओर सब कुछ तेज़ी से बदल रहा था, लेकिन हम सब, कल या परसों या और उसके पहले के दिनों जैसे ही थे. लगभग ज्यों के त्यों.

सुनील पानवाले की दूकान में हम सब के हर रोज़ इकट्ठा होने की वजह भी यही थी कि सुनील भी हर रोज़ पिछले रोज़ की तरह ही होता था. उसकी पत्नी को क्रोनिक दमा था और एलोपैथी, आयुर्वेद से लेकर जादू-टोना और जड़ी-बूटियों तक का सहारा वह ले रहा था. पांच बच्चे थे, जिनमें से तीन स्कूल जाते थे. दो लड़कियां, तीन लड़के. हर रोज़ वह स्कूल को गालियां देता था, जो किताब-कापियों के अलावा, जूते, मोज़े, बस्ता-बर्दी किसी खास तरह की, किसी खास ब्रांड और क्वालिटी की मांग करता था और अगर वह अपने बच्चों को यह सब जल्दी, किसी एक खास नियत तारीख तक खरीद कर नहीं दे पाता था, तो बच्चे स्कूल नहीं जाते थे. इस डर से क्योंकि वहां की मैडम उन्हें क्लास से भगा देती थी. वह उस बस को भी गालियां देता था, जो उसके बच्चों को स्कूल ले जाती थी और हर दूसरे-तीसरे महीने उसका किराया बढ़ जाता था. वह सरकार और पेट्रोल कंपनियों को गालियां देता था, जिनकी वजह से हर महीने पेट्रोल के दाम बढ़ जाते थे, जिससे उसकी पुरानी मोटर साइकिल का खर्च बढ़ जाता था. वह अपने बच्चों और पत्नी को गालियां देता था, जिनकी वजह से वह दिन-रात खटता रहता था और कभी अपने पहनने के लिए ठीक कपड़ा और पीने के लिए दारू का पउआ खरीद पाता था. वह पुलिस और म्युनिसपैलिटी को गालियां देता था, जो उसके पान के खोखे को हफ़्ता-बसूली के बाद भी, महीने-दो महीने में हटा देते थे फिर उसे अदालत में जाकर, जुर्माना भरना पड़ता था.

लेकिन उसने अपने साठ साल के पिता की बीमारी में सत्तर हज़ार खर्च कर के उनकी स्पाइनल के रोग को ठीक करा डाला था और वे फिर से चलने फिरने लगे थे. लेकिन अब वह अपने पिता जी को भी मां-बहन की गालियां देता था, क्योंकि उन्होंने गांव में जो ज़मीन बेची थी, उसमें उसको एक पैसा नहीं दिया था और सारी जायदाद उसके निकम्मे, गंजेड़ी भाई के नाम कर दी थी, जो बड़ी चालू चीज़ था.

सुनील यादव पानवाले की भाषा में इतनी अधिक गालियां थीं कि मैं अचंभे में आ जाता था. लेकिन अफ़सोस यह होता था कि ऐसी भाषा में राजभाषा ‘हिंदी’ का कोई साहित्य नहीं रचा जा सकता था. ‘हिंदी’ के शब्दकोषों और शब्द-सागरों में सुनील पनवाड़ी की भाषा के शब्द नहीं थे.

उसकी गालियां सुन कर हम सब हंसते थे क्योंकि हम सब अपनी-अपनी गालियों को अपनी-अपनी हंसी में हुनर के साथ छुपाते थे.

जज सा’ब तो सबसे ज्यादा हंसते थे. ठहाका लगा कर. कई बार, जब उनका मुंह पान से भरा रहता था और सुनील गालियां देने लगता था, जिसे सुन कर सब हंसते थे और जज सा’ब ठहाका मारते थे, तो पान की पीक उनके कपड़ों पर गिर जाती थी और तब वे भी बहुत गाली देते थे और फिर सुनील से चूना मांग कर पान की पीक के ऊपर रगड़ते थे क्योंकि इससे दाग छूट जाता था.

ऐसा ही कोई दिन था, जब वे अपनी सफ़ेद शर्ट के ऊपर पड़ी पान की पीक के दाग के ऊपर चूना रगड़ रहे थे, और तब पहली बार मैंने अचानक पाया कि पिछले दस महीने से हर रोज़, हर सुबह वे हमेशा वही एक सूट पहन कर वहां आते थे. शायद उनके पास कोई दूसरा सूट या कोट पैंट नहीं था.

सुबह वे इस तरह तैय्यार हो कर आते थे जैसे किसी कोर्ट में जाने वाले हों और अभी कुछ ही देर में कोई चार्टर्ड बस आयेगी और उसमें बैठ कर वे चले जायेंगे.

लेकिन जज सा’ब हमेशा पैदल ही लौट जाते थे. सुनील ने बताया कि वे अभी इंतज़ार कर रहे हैं. पिछली बार जब वे जज थे, उसकी मीयद बढ़ाई नहीं गयी है. जिस मंत्री की सिफ़ारिश पर वे किसी अदालत में जज बने थे, वह मंत्री किसी बलात्कार के केस में जेल जा चुका है और अभी तक वे कोई नया कांटेक्ट नहीं बना पाये हैं, जो उन्हें दुबारा जज बना दे.

उस दिन के बाद से मुझे उनसे सहानुभूति होने लगी थी और कई बार मैं उन्हें पास के ही पंडिज्जी के ढाबे में चाय पिलाने लगा था.

एक दिन वे सुबह नहीं, शाम तीन बजे सुनील की दूकान पर बहुत परेशानी की हालत में मिले. उन्होंने बताया कि उनका बेटा घर से भाग गया है और कहीं मिल नहीं रहा है. दो दिन से वे उसे खोज़ रहे हैं. थाने में भी उन्होंने गुमशुदगी की रिपोर्ट लिखाई है लेकिन ऐसा लगता है कि पुलिस वाले उनके सात साल के बेटे को ज़िंदा खोज़ने की बजाय कहीं उसकी लाश की इत्तिला पाने के इंतज़ार में हैं. यही अक्सर होता था. गुमशुदा बच्चे मुश्किल से ही दुबारा कभी मिलते थे. अक्सर उनकी लाश ही मिला करती थी.

गनीमत थी कि उस समय तक गैस आ चुकी थी और मेरी कार सीएनजी से चलने लगी थी. मैं भी चिंतित हुआ और जज सा’ब के बेटे को खोज़ने के लिए, उनके साथ वैशाली के सारे इलाकों में, उसकी जानी-अनजानी सड़कों, गलियों, मोहल्लों-बस्तियों में निकल पड़ा.

जज सा’ब कृतज्ञ थे और बार-बार उनकी आंखों में आंसू छलक आते थे. वे भावुकता में कभी मेरा हाथ थाम लेते थे, कभी कंधों पर झूल जाते थे. उन्होंने बताया कि पार्थिव को उन्होंने डांटा था क्योंकि वह पढ़ने की बजाय क्रिकेट का ट्वंटी-ट्वंटी मैच देख रहा था, जब कि सुबह उसका इम्तहान था. उन्होंने टीवी बंद कर दिया था, ठीक उस समय, जब डेलही डेयर डेविल्स को राजस्थान रायल्स से जीतने के लिए आखिरी चार ओवरों में पैंतीस रन बनाने थे और सुरेश रैना चौके छक्के लगा रहा था.

सुबह पार्थिव स्कूल के लिए निकला था और तब से लौट कर नहीं आया था. स्कूल से पता चला कि वह इम्तहान में भी नहीं बैठा था.

तो वह कहां गया ?

हम तीन घंटे से उसे हर जगह खोज़ रहे थे. कोई कोना नहीं छोड़ रहे थे. पांच से ऊपर बज चुके थे और डर था कि अगर अंधेरा हो गया तो आज का एक दिन और व्यर्थ चला जायेगा. दूसरी बात यह थी कि जज सा’ब अपने घर में अपने बेटे के साथ अकेले ही इन दिनों रह रहे थे क्योंकि उनकी पत्नी उनके घर, झांसी जा चुकी थी. वे दो वजहों से यहां रुके हुए थे. एक तो बेटे पार्थिव की पढ़ाई और परीक्षा और दूसरे, उन्हें पिछले दस महीने से हर रोज़, हर सुबह, यह उम्मीद लगी रहती थी कि शायद आज उनका काम कहीं बन जाय और वे दुबारा किसी जगह, लेबर कोर्ट ही सही, जज बन जांय. हर सुबह वे अखबार में राशिफल देख कर निकलते थे. मंत्रों का जाप करते थे. शनिदेव के मंदिर में तेल और सिक्के चढ़ाते थे. लेकिन हर रोज़ हर रोज़ जैसा ही होता था.

अब तक कार और पैदल हमने सारी समझ में आ सकने वाली जगहें खोज़ डाली थीं. हर जगह निराशा. वैशाली के चप्पे-चप्पे से खाली सूनी हारी हुई चार आंखें. अनगिनत लोगों से पार्थिव का हुलिया, उम्र, नाक-नक्श बता कर पूछे गये सवालों के जवाबों से हताशा.

…और तब, जब लगने लगा कि अंधेरा अब बढ़ जायेगा और रात उतर आयेगी, तब मुझे एक डरावना खयाल आया. नहर के किनारे-किनारे उगी झाड़ियों में पार्थिव की खोज़. जीवित न सही, जीवन के बाद का शरीर.

लेकिन समस्या यह थी कि मैं यह जज सा’ब से कहता कैसे ? इसलिए, बिना उन्हें बताये मैं कार नहर की ओर ले गया. यह हमारी आज की आखिरी कोशिश थी.

और वहां, जहां सरकारी ज़मीनों पर तमाम देवी देवताओं के मंदिर अनधिकृत ढंग से बने हुए. जिस जगह पर वैशाली की हरित पट्टी घोषित थी और जो अब ‘मंदिर मार्ग’ में बदल चुकी थी और जहां पहले पुलिस का ‘एनकाउंटर ग्राउंड’ हुआ करता था, वहीं नहर के किनारे के एक छोटी-सी खाली जगह में कुछ बच्चे क्रिकेट खेल रहे थे.

जज सा’ब अचानक चीख पड़े ; ‘राइटर जी, वो रहा पार्थिव !’

मैंने कार में ब्रेक लगाया. उसे सड़क के किनारे खड़ा किया और तेज़ी से भागते हुए जज सा’ब के साथ दौड़ पड़ा.

जज सा’ब अपने सात साल के बेटे पार्थिव के सामने खड़े थे, उसे अपनी ओर खींच रहे थे, उनकी आंखों से आंसू बह रहे थे लेकिन पार्थिव उनकी पकड़ से छूटने के लिए छटपटा रहा था.

उसके साथ खेलने वाले सारे बच्चे सहमे हुए चुपचाप जज सा’ब और पार्थिव की पकड़ा-धकड़ी देख रहे थे. मैं पांच कदम दूर खड़ा देख रहा था. तभी अचानक सारे बच्चों ने चिल्लाना शुरू कर दिया.

बच्चे डर गये थे. उन्हें लगा था कि पार्थिव का अपहरण हो रहा है. वे चीख रहे थे और कुछ ने जज सा’ब को ढेले मारने शुरू कर दिये थे. एक लगभग नौ साल का बच्चा दौड़ता हुआ आया और उसने क्रिकेट के बैट से जज सा’ब को मारा. निशाना सिर का था, उधर जिधर दिमाग हुआ करता है लेकिन ठीक उसी पल जज सा’ब झुके और बैट उनकी पीठ पर लगा.

शोर सुन कर आसपास लोग इकट्ठा होने लगे थे. मंदिर के कुछ पुजारी और साधू-भिखारी भी आ गये थे.

‘पार्थिव चिल्ला रहा था –‘मुझे इस आदमी से बचाओ ! प्लीज़…  प्लीज़… हेल्प मी !’

शायद किसी ने फोन किया होगा क्योंकि हमेशा देर से पहुंचने के लिए बदनाम पुलिस की पी.सी.आर. वैन सायरन बजाती हुई वहां उस रोज़ ठीक इसी वक्त पर पहुंच गयी.

पार्थिव बार-बार कह रहा था – ‘मैं इन अंकल को नहीं जानता’ और जज सा’ब रोते हुए, उसे अपनी ओर खींचते हुए बार-बार लोगों की भीड़ और पुलिस को समझाते हुए कह रहे थे –‘ये पार्थिव है. मेरा बेटा.’

पुलिस के साथ, मैं और जज सा’ब थाने गये और फिर वहां से पार्थिव को घर ले जाया गया.

मैं भीतर से हिल गया था.

इसके बाद, अगली सुबह से जज सा’ब मुझे सुनील पानवाले की दूकान पर नहीं दिखे. आज तक वे नहीं दिख रहे हैं.

अब वे कभी नहीं दिखेंगे.

सोचता हूं काश यह इस किस्से का अंत होता. इसी असमंजस जगह पर आकर कहानी खत्म हो गयी होती.

लेकिन ऐसा नहीं हुआ. जज सा’ब की कहानी अभी बाकी है, जिसके बारे में पहले ही यह डिस्क्लेमर लगा हुआ है कि इसका किसी ज़िंदा या मृत व्यक्ति से कोई संबंध नहीं है. यह पूरी तरह काल्पनिक जगहों और पात्रों पर आधारित कथा है. और इसे पढ़ने से कोई कर्क रोग नहीं हो सकता.

*

यह संयोग ही था कि तीन दिन बाद मुझे विदेश जाना पड़ गया. पूरे तीन महीने के लिए और जब मैं वहां से लौट कर आया तो सुनील की दूकान उस जगह पर नहीं थी. उसके खोखे को वहां से म्युनिस्पैलिटी वालों ने हटा दिया था और उस जगह एल.पी.जी. का पाइप डालने के लिए गड्ढे खोद दिये गये थे और बाहर कंटीले तारों की फेंसिंग तान दी गयी थी. सड़क के पार जो एक लंबा-चौड़ा प्लाट खाली पड़ा था, और जहां कोलोनी का कूड़ा-कचरा फेंका जाता था, जहां लावारिस गायें, सड़क के कुत्ते, सुअर और कौओं की भीड़ जुटी रहती थी, वहां ‘शुभ-स्वागतम बैंक्वेट हाल’ का बड़ा-सा बैनर लग गया था.

जज सा’ब के बारे में मेरी स्मृति कुछ धुंधली होने लगी थी. इतने दिनों तक दूसरे देश के दूसरे शहरों की यात्राएं और बिल्कुल दूसरी तरह की ज़िंदगी. फिर यह भी एक संयोग ही था कि मुश्किल से पांच दिनों के बाद मुझे अपने गांव जाना पड़ गया.

तीन महीने बाद मैं वापस लौटा और लौटने के एक हफ़्ते बाद फिर से मुझे सुनील पानवाले की याद आई. याद आने की दो वजहें थीं, एक तो मेरे भीतर यह जानने की उत्सुकता थी कि उसकी पत्नी की तबियत कैसी है और बच्चों की पढ़ाई कैसी चल रही है. दूसरी वजह ज़्यादा महत्वपूर्ण और निर्णायक थी. वह यह कि मुझे किसी दूसरे पनवाड़ी के हाथ का लगाया पान खाने में वह स्वाद ही नहीं मिल रहा था, जो सुनील यादव के पान के हाथ का था.

पान खिलाने के पहले सुनील दूकान के नीचे रखी बोतल से पहले पानी पिलाता था –‘ल्यौ, पहले कुल्ला करके बिरादरी का पानी पियो फिर पान खाओ’ और फिर शुरू होती थीं उसकी धुआंधार गालियां.

वह भाषा मुझे सम्मोहित करती थी और मैं हमेशा सोचता रहता था कि कैसे इन गालियों को राष्ट्र-राज नव-संस्कृत भाषा ‘हिंदी’ के शब्दकोष और उसके साहित्य में सम्मिलित करूं. यह एक विकट-गजब की बेचैनी थी, जिससे मैं पिछले तीन दशकों से गुज़र रहा था. जब भी कभी मैं ऐसी कोई कोशिश करता और अपनी किसी कहानी या कविता में, सतह के ऊपर के वाक्यों में या उनके भीतर के तहखानों में छुपे अर्थों में किसी गाली का प्रयोग करता, मुझ पर हमले शुरू हो जाते. हाथ आये काम छीन लिए जाते. अफ़वाहें फैला दी जातीं और मैं फिर सही समय का इंतज़ार करने लगता.

उस समय और उस मौके का इंतज़ार, जब मैं खुल कर इन गालियों को अपनी रचनाओं में, एंड़ी से चोटी तक बेतहाशा इस्तेमाल कर सकूं.

यही वह कारण था कि मैंने फिर से सुनील का नया ठिकाना खोज़ निकाला और उसके पास जा पहुंचा. वह अब सेक्टर तेरह में जा चुका था और म्युनिसपैलिटी तथा पुलिस वालों को कुछ घूस-घास देकर पटरी पर इस नयी जगह का जुगाड़ कर लिया था.

मुझे इतने समय के बाद देख कर वह बहुत खुश हुआ. मैंने उसकी बोतल का पानी पीकर कुल्ला किया. उसके हाथ का लगाया हुआ पान खाया. हमारा मज़मा फिर जुड़ा. सब पहले की तरह ही थे. कुछ भी नहीं बदला था. सुनील की पत्नी को अब भी दमा था. उसे ठीक करने के लिए सुनील अब भी एलोपैथी, आयुर्वेद, जड़ी-बूटी, झाड़-फूंक, जादू-टोना, तंत्र-मंत्र का सहारा ले रहा था. उसके बच्चे अब भी स्कूल जा रहे थे. वह अब भी उसी तरह स्कूल, बस, पेट्रोल कंपनियों, सरकार, पुलिस सबको गालियां दे रहा था. इसी बीच कोई चुनाव हुआ था, जिसमें उसने अपनी जात के एक उम्मीदवार को वोट दिया था लेकिन अब उसे भी गालियां दे रहा था कि दूकान के लिए जब पटरी के ‘लाइसेंस’ की सिफ़ारिश के लिए वह गया तो उस नेता के पी.ए. ने उससे बीस हज़ार का घूस मांगा. वह गालियां देते हुए कसम खा रहा था कि अब आइंदा वह अपने किसी जात-बिरादरी के नेता को वोट नहीं देगा. सब साले चुनाव जीत कर चोट्टे हो जाते हैं.

उसकी गालियों पर हम सब अपने-अपने भीतर की गालियां, अपने-अपने हुनर से छुपा कर हंसते थे.

और तभी एक सुबह, जब सब हंस रहे थे मुझे जज सा’ब की अचानक याद आयी. उनकी याद आने की वजह थी सुनील की गालियां सुन कर उनके ठहाके के साथ उनकी शर्ट पर पड़ने वाली पीक के लाल धब्बे और उस पर उनका चूना रगड़ना.

फिर मुझे उस रोज़ उनके गुमशुदा बेटे पार्थिव और उसे खोज़ निकालने की घटना की याद आयी. और तब मैंने सुनील से जज सा’ब के बारे में पूछा.

सुनील ने जो बताया, वही इस किस्से का आखिरी हिस्सा है.

मेरे विदेश चले जाने के बाद, यानी पार्थिव की बरामदगी के लगभग छह-सात दिनों के बाद, एक सुबह जज सा’ब सुनील के पास अपना वही पुराना सूट पहन कर आये थे और उन्होंने उससे कहा था कि अब उनकी जज वाली नौकरी फिर बहाल होने वाली है, जिसके लिए उन्हें कुछ रुपयों का इंतज़ाम करने झांसी जाना है. वे बहुत खुश थे और उन्होंने कहा था कि दस-पंद्रह दिनों में वे झांसी से रुपयों का इंतज़ाम करके लौट आएंगे.

उन्होंने सुनील पानवाले से छह हज़ार रुपये उधार मांगे थे.

सुनील के पास रुपये नहीं थे तो उसने कहीं किसी कमेटी से उठा कर, महीने भर के ब्याज की शर्त पर रुपये लेकर उन्हें छह हज़ार रुपये दिये थे.

जज सा’ब पंद्रह दिन तो क्या ढाई महीने तक नहीं लौटे थे. कमेटी वाला हर रोज़ ब्याज बढ़ाता जा रहा था और अब सुनील की गालियां जज सा’ब के लिए निकलने लगी थीं. जज सा’ब उसे अपना मोबाइल नंबर और झांसी के घर का पता लिख कर दे गये थे. लेकिन सुनील जब-जब उस मोबाइल नंबर पर फोन करता, उसका ‘स्विच आफ़’ मिलता.

जज सा’ब भी चोट्टा था, साला. पनवाड़ी को ही चूना लगा गया. वह कहता, तो सारे लोग उसी तरह हंसते. अपने-अपने हुनर के भीतर अपनी-अपनी गालियों को छुपाते हुए.

फिर ब्याज पर ब्याज की राशि जब ज़्यादा बढ़ गयी और कमेटी वाले ने थाने में शिकायत कर दी और पुलिस वाले आकर उसका खोखा उठा कर थाने ले गये तो जज सा’ब की खोज़ में सुनील झांसी गया.

झांसी में जज सा’ब का घर खोजने में सुनील को आठ घंटे लग गये. बीच-बीच में उसे लोगों ने भी बताया कि यह पता शायद नकली है, जिसे सुन कर सुनील एकाध बार झांसी जैसे अनजान शहर में, जहां वह पहली बार ही गया था, रोया भी था और वहां भी उसने अकेले में भरपूर गालियां आंसुओं के साथ दी थीं.

झांसी में वैशाली का मज़मा नहीं था, जो हंसता.

आखिर कार शहर से सात किलोमीटर दूर वह मोहल्ला मिला और वह घर, जिसका नंबर जज सा’ब ने सुनील को अपने पुराने लेटर हेड पर लिख कर दिया था. वह लेटर हेड पुराना था. उस समय का, जब वे जज हुआ करते थे. उस पर तीन मुंह वाले शेर का छापा ऊपर लगा था.

लेकिन उस घर में ताला लटका हुआ था. सील बंद, सरकारी ताला.

सुनील के होश उड़ गये.

बहुत मुश्किल से एक पड़ोसी ने जो बताया, वह कुछ बहुत ही मामूली से वाक्यों के भीतर था. उसे बताते हुए पड़ोसी का चेहरा लकड़ी जैसा सपाट था.

जैसे वह किसी कठपुतले का चेहरा हो.

‘यहां रहने वाले ने फेमिली के साथ सुसाइड कर लिया. दो महीने पहले. पुलिस ताला लगा गयी है. अभी तक यहां उसका कोई रिश्तेदार नहीं आया.’

सुनील पहले तो स्तब्ध हुआ, फिर रोया और फिर उसने खूब गालियां बकीं, जिन्हें सुन कर उस सपाट चेहरे वाले कठपुतले को भी खूब हंसी आई, जिसे उसने अपने किसी हुनर के भीतर नहीं छुपाया.

सुनील ने अपने गांव जा कर अपने पिता जी, जिनके स्पाइनल के इलाज में उसने सत्तर हज़ार खर्च किये थे और आठ महीने की दिन रात सेवा, उनसे ड्योढ़े ब्याज की दर पर दस हज़ार का कर्ज, रोटरी के स्टैम्प वाले कागज़ पर हलफ़नामा लिख कर उठाया और उसमें से साढ़े सात हज़ार कमेटी वाले को और दो हज़ार पुलिस और म्युनिस्पैलिटी वाले को दे कर अपना खोखा फिर से पटरी पर लगाया.

यह बात बता कर सुनील ने फिर से अपनी गालियां शुरू कीं, जिन्हें सुन कर मैं हंसा और हमारे मज़मे के सारे लोग हंसे लेकिन इस बार पान की पीक मेरी शर्ट पर गिरी और मैंने सुनील से मांग कर वहां चूना रगड़ने लगा, जिससे वहां पीक के धब्बे न रहें.

अचानक मैंने देखा कि मेरी शर्ट भी, जिसे मैंने पहन रखा है, वह लगभग अट्ठाइस साल पुरानी है.

आपको याद होगा कि मैंने अपने और जज सा’ब की दो एडिक्शंस या लतों के बारे में बताया था, जिसकी वजह से हम एक-दूसरे से जुड़े हुए थे. एक पान और दूसरी खैनी. और तब मैंने कहा था कि अपनी और उनकी तीसरी लत के बारे में मैं कहानी के बिल्कुल अंत में बताऊंगा.

…तो वह तीसरी लत या एडिक्शन थी ज़िंदगी.

हर हाल में ज़िंदा रहे आने की लत.

सुनील, वहां इकट्ठे होते लोग, सारा मज़मा इसी ‘एडिक्शन’ का शिकार था, लेकिन जिस लत के कारण कोई कर्क रोग नहीं होता. यह खैनी-सिगरेट-गुटके की तरह जानलेवा नहीं है.

भले ही जज सा’ब की जान चली गई हो.

 

Eugène Cicéri, Design for a stage set at the Opéra / Metropolitan Museum

 

Judge Sa’b

 

Nine years ago, after thirteen years of living in the Rohini neighbourhood of North Delhi, I moved, and came here, to Judge Colony in Vaishali, just outside the capital. Vaishali is considered a ‘posh’ neighbourhood, where the provincial government of Uttar Pradesh had set aside plots of land here reserved for judicial magistrates. And it’s in one of the houses built on one of those plots where I now live.

The street where my apartment was built is called ‘Justice Way’, though potholes are everywhere and every few feet the road is torn up and littered with pits. Builders have strewn piles of bricks, construction sand, asphalt, rebar, and PVC pipes all over the road, and it’s one-way for several stretches. Accidents happen daily because of its having become a one-way street. The street’s never fixed because the builders and contractors have plenty of cash, and connections that go all the way to the top.

The grandson of a retired magistrate, living right here in Judge Colony, was hit by a dump truck and spent three months in the hospital before he died.

But the buildings are still going up, and the dump trucks and lorries still come and go. ‘Justice Way’ in Vaishali is still full of potholes, rife with accidents, and still one-way.

Development in this Judge Colony for VIPs is happening incredibly fast. When I first moved here nine years ago, there were only two shopping malls within a two-kilometre radius. Now there are twenty-one gigantic, multi-storey shopping malls, two five-star international hotels, car showrooms, shiny and grand, selling every car from Chevrolet to Hyundai to Suzuki, a Haldiram sweet shop, McDonalds, Domino’s Pizza, KFC, Bikanerwala, and hundreds of other fast food and snack joints. There’s a restaurant or bar every two feet.

In my sixty years, I’ve never seen so many who are more well-drunk than well-fed.

There was only forest and farmland when I moved here nine years ago: mustard fields, fields of wheat, and basmati rice paddies. Sometimes the whole area would be filled with the fragrance of yellow mustard blossoms or the scent of basmati. Around the neighbourhood you’d see cotton combers hand-scutching cotton wool, women making cow-dung cakes, hammersmiths forging karhai pots and pans and tongs and sickles, the morning gang of pig hunters, and slum women everywhere answering the call of nature right out in the open. I wasn’t quick to go out on my balcony in the morning since the empty lot across the street was where man and woman, alongside swine, performed their daily excretions in full view of anyone looking. And just beyond is the scrubland along the bank of the canal that had become ‘encounter grounds’ where ‘criminals’ were taken under the cover of night and shot dead by police. Newspapers the next morning ran stories of the police’s lively and heroic encounter with terrorists or dacoits.

But as nine years have passed, everything’s changed. As if, while watching a very long film, a completely different, startling shot suddenly leaps on screen.

There are a great many magistrates living in this colony. Some are retired, others still cashing a paycheck for meting out justice in their various respective courts.

There’s a park right next door to me, and a lovely one at that. Whenever I’m out on a morning walk in the park, I inevitably run into several judges. Some are already quite old and aren’t able to walk very far or very fast, or they shuffle along with a cane. A few have a caregiver alongside to make sure they don’t fall, or to take them straightaway to the hospital in case of a heart attack or shortness of breath. These judges live alone in their quarters. Some with their wives, and others completely alone. Their kids are all grown up and have moved away to other cities in India, or somewhere abroad, and maybe come to visit India once every year or two for a handful of vacation days of sightseeing in Agra, Shimla, Nainital, Darjeeling or the like. One judge living all alone told me he can’t wrap his head around why his son and his American daughter-in-law are so crazy for Indian birds, so much so that during their biennial visit, after staying with him for a couple of days, they rush off to Bharatpur or other bird sanctuaries in Rajasthan.

‘I can’t figure out how it is that those two never tire of birds when I am fed up to here with my life, work, the law, and courts,’ he said, scratching his head with a sigh. ‘Believe me, I’m no fool, I know my son and his family come to India to see birds and monuments, not to spend time with me.’

Watching the gait of these old judges it seemed as if their whole bodies bore the load of the countless memories of the past. It wasn’t old age, but the burden of memories they couldn’t bear – but had to shoulder nonetheless. I noticed that they’d quickly tire and sit on one of the park benches where there, too, their heads bowed downward under the strain.

It must be an unfathomably heavy burden carried behind their ancient brows, rutted with deep lines and wrinkles. Their internal ‘hard drives’ must be filled to the max.

Might they now be thinking again about decisions they’d handed down in bygone days, possibly with pangs of regret?

A few teardrops ran down their faces from old, tired, blinking eyes, irrigating wrinkles and wetting their cheeks. And when it happened, they would find a soiled old handkerchief from inside their pockets, using it to wipe a rutted face and slowly clean dirty eyeglasses.

But the magistrates who weren’t yet so old and infirm donned their jogging suits and sporty trainers and walked at a brisk pace in the park. They were in some kind of hurry, possibly about to hand down their decisions. Some case or another was still underway and they were trying to sort out the boondoggle with their anxious gait.

Each and every one of these judges had a great many stories to tell – hundreds, thousands, an unending reserve. Cases where truth and falsehood were so knottily entangled that even today they’re unsure about the decisions they’d handed down. If I were to start telling you each of these various stories it’d soon become an epic tale that would quickly eviscerate your notions of truth and falsehood, justice and injustice.

My own faith is long gone – that’s why I spend more and more time in temples and dargahs, with trees and children. A magistrate strikes me as friendless, all alone in the world, and a court of law like a shopping mall or tourist monument: a place that exists to give them a wage.

Oh! But I was going to tell you the tale of Judge Sa’b, whose apartment isn’t even in our Judge Colony, but in another place, another sector. Still, when I came here nine years ago I used to see him all the time. Whatever his official, real name might have been, everyone called him ‘Judge Sahib’ – shortened in our slangy way to ‘Judge Sa’b’.

I always met him at Sunil Yadav’s paan stall. Paan and chewing tobacco: the bad habits that bound the two of us together.

There was one more addiction or habit that he had. (I’ll reveal it at the very end of the story. And, I think it’s important to give a ‘disclaimer’ right here and now that this story has no connection with persons, living or dead, and is purely a fictitious work based on imaginary characters and places. If it looks like it does, it’s no more than sheer happenstance, and if someone decides to file a lawsuit, it will be heard in the court where Judge Sa’b presides.)

So please come and listen to the real story. It’s not long at all, and has a whiff of the sensational about it.

Every morning right at 9 a.m., I met Judge Sa’b at Sunil’s paan stall. He was always smiling and sprightly. He had surely crossed into his fifties, but still didn’t wear glasses.

He always opened with the very same sentence. ‘Namaskar, sir ji! And how are you today?’ And my answer was invariably, ‘I am just fine, Judge Sa’b, and you?’ His response, unfailingly, was, ‘My dear writer, I am the same as I was the day before.’

‘And that’s the same with all of us, same as we were the day before!’ Judge Sa’b and everyone else standing around Sunil’s smiled at this. My answer and the group’s mirthy reaction were both always the same.

It’s the truth. No matter that everything all around was changing so quickly, each one of us – whether yesterday, or the day before, or the days before that – were exactly the same. Same as we ever were, more or less.

Another reason all of us collected ourselves and stood around Sunil the paan-man’s paan stall was that Sunil himself every day was exactly the same as he had been the day before. His wife had chronic asthma, and she was taking every cure from allopathy to ayurveda to spells and magic to herbs and balms and spices. He had five kids – two girls and three boys – with three in school. Every day, Sunil had choice words for the school that was forever demanding textbooks and notebooks and shoes and socks and uniforms that had to be a special kind and particular brand and up to a certain standard of quality and if he couldn’t come up with the goods by a fixed date then his kids wouldn’t be able to go to school – a real fear, since the headmistress would chase them right out of class. And he had even more choice words for the school bus that took his children to school and jacked up the fees every couple of months. He swore at the government and at the oil companies who were responsible for the rise in petrol prices each month and cost him more and more to run his motorbike. He cursed his wife and kids who were responsible for the fact that he had to work like a dog and couldn’t afford to buy decent clothes for himself, or treat himself to an occasional shot of the good stuff. He cursed the police and the municipality for evicting him and his kiosk every so often, even though he paid them off each week, and then he’d have to go to court and pay a fine.

He spent seventy thousand rupees on the treatment for his father’s illness, then sat at his father’s bedside, at his beck and call day and night, until his spinal-cord problems were at long last cured and he once again began to get around on his own. But now he hurls the same mother/ sisterf***er invectives at his father since he didn’t receive one red rupee from the sale of the family land in the village, since the father signed over the entire estate to his listless hash head brother, who was duplicitous, cunning and sly.

Sunil Yadav’s exceedingly bountiful swearing and cursing left me in a state of awe. But the shame is that language like this can’t be used to write literature in this national language people call ‘Hindi’. The words of paanwala Sunil Yadav exist in no dictionary or lexicon of this language known as ‘Hindi’.

We all delighted in listening to his bad words because all of us, with practised skill, hid our own profanities behind our laughter.

Judge Sa’b laughed the loudest, from the innermost gut of his belly, and it wasn’t uncommon for his mouth to be full of paan: Sunil began swearing up a blue streak, everyone loved it, Judge Sa’b couldn’t control himself, and dribbled red paan juice onto his clothing, cursing like hell and asking Sunil for a dab of slaked lime chuna to rub on the stains so they wouldn’t set.

It was a day just like this as he dabbed chuna over the red paan stains on his white shirt when it suddenly occurred to me that every morning for the past ten months he’d come to Sunil’s wearing the very same outfit. Maybe he didn’t have any other coat or jacket or pants? He dressed himself in the morning before leaving for Sunil’s as if he was setting off for court and in no time at all the charter bus was going to pull up, he’d hop on, and be on his way.

But Judge Sa’b always went home on foot. Sunil informed us that he was still waiting; that his final appointment as judge had been his last; that he has not received an extension. The minister who’d appointed him and made him a judge in the first place had been caught in a rape scandal and was now in jail, and Judge Sa’b still hadn’t been able to find a new connection who could appoint him as a judge once again.

From that day on, I began to feel affinity and pity for him and on more than one occasion spotted him a cup of chai at the nearby Pandijji Dhaba.

One day I saw him at Sunil’s stall not in the morning but at three in the afternoon, and in a terrible state. He said his son Parthiv had run away from home and he couldn’t find him anywhere and he’d been looking for him for two full days. He’d filed a missing persons report at the police station, but had the feeling that instead of searching for his 7-year-old boy, they were simply waiting for a body to turn up. That’s how it goes. Missing children are rarely found again, unless it’s their corpses.

Luckily, car engines were by then being fitted with compressed natural gas canisters. Mine now ran on this CNG, allowing for driving a longer range. I was also worried, and so I set off with Judge Sa’b to look for his son in every neighbourhood and locale of Vaishali, the streets we knew and the ones we didn’t, the bylanes, the outskirts, everywhere we could think of.

Judge Sa’b was grateful, and his eyes welled up with tears again and again. When he needed to, he took my hand, or leaned on my shoulder. He told me that he’d scolded Parthiv for watching the Twenty20 cricket match instead of doing his schoolwork when he had an exam the next morning. He turned off the TV just as the Rajasthan Royals had to make thirty-five runs in the last four overs for the win against the Delhi Daredevils and Suresh Raina was scoring sixes and fours.

Parthiv left for school the next morning and never came home. And as it turned out, he never took the exam.

So where did he go?

We looked everywhere for three hours straight, in each and every last corner of Vaishali. It was past five o’clock and we were worried that nightfall would mean one more day wasted. The other problem was that his wife had gone to her family home in Jhansi and Judge Sa’b was living alone with his son at the moment. They were stuck in Delhi for two reasons. One was Parthiv’s studies and exams, and the other was the hope he held steadily each day for the past ten months that somehow he’d be made a judge once again – even a lowly appointment in a labour court would do. Every day he read his horoscope before going out. He repeated mantras. He made offerings of oil and coins at the mandir of Shanidev. But every day was just like every other.

By then we had covered all the places we were able to think of, in car and by foot. Everywhere turned up nothing. Four empty, weary, vanquished eyes at the hands of the labyrinth of Vaishali, frustrated by the answers of countless people we had given details about Parthiv’s physical description and age.

When it seemed that the sun was about to set and darkness filled the sky, I had a thought: let’s look in the scrubland along the bank of the canal. Even if he’s not alive, there’d still be a body after life had departed.

But the question was, how could I suggest such a thing to Judge Sa’b? So what I did was simply drive towards the canal without saying anything. It was our last try for the day.

So that’s where we went, where countless mandirs to each and every god and goddess imaginable have been built without any permit on government land that was designated as Vaishali’s ‘green belt’, now transformed to ‘mandir boulevard’, and where the police ‘encounter ground’ had once been, and where we found a group of kids playing cricket on a tiny patch of vacant next to the canal.

Judge Sa’b screamed, ‘Writerji, it’s Parthiv!’

I hit the brakes and pulled over and ran fast alongside him.

He stood before his 7-year-old son, reached out to embrace him, tears flowing from his eyes, while Parthiv was writhing to escape his grip.

Nervous, his playmates silently watched the struggle between Judge Sa’b and Parthiv unfold. I stood a few steps back. Suddenly, all his playmates began to scream.

They were scared because they thought Parthiv was being kidnapped. As they screamed and yelled, a few of them threw mud at Judge Sa’b. One kid who looked about 9 came running and hit him with a cricket bat. He’d aimed for the base of the head to maximise brain impact, but at the last second Judge Sa’b had ducked by chance and the bat landed on his back.

Hearing the commotion, a crowd of people gathered. A few worshippers and sadhus and beggars emerged from the temples.

Parthiv screamed, ‘Help me! Get me away from this man! Please! Help!’

Someone must have made a phone call. The police have a bad rap and always arrive on the scene too late, but that day the wailing siren of a PCR van signalled its arrival just in time.

Parthiv insisted and insisted, ‘I don’t know who this man is!’ and Judge Sa’b, in tears, pulled him toward him and explained to the crowd and the police, ‘This is my son, Parthiv!’

Judge Sa’b and I went along with the police to the station, and from there Parthiv was taken home.

I was shaken to the core.

After that, the next morning Judge Sa’b didn’t turn up at paanwala Sunil’s stall. And he hasn’t turned up since.

I think it’s a shame that this couldn’t be the end of the story. We arrive here without resolution, and the story ends.

But that’s not how it went. The story of Judge Sa’b is still to be told, about which I’ve given the disclaimer that the story has no connection with persons, living or dead, and is purely a fictitious work based on imaginary characters and places. And reading it will not cause cancer.

By chance, three days later, I had to leave for a trip abroad, for three long months. And when I came back, Sunil’s wasn’t there anymore. The municipal authorities had evicted him and his kiosk. Earth had been excavated to lay LPG pipes where his stall had stood, and was surrounded by barbed wire. On the other side of the street, which had been a huge vacant lot and had served as the trash heap of the colony and place where the homeless gathered along with stray dogs, pigs, and crows, now had a banner hanging in front that proclaimed ‘Most Holy Welcome Banquet Hall’.

My memory of Judge Sa’b had begun to fade a bit, what with travelling from city to city, country to country, living a totally different way of life. Then, by chance, I also had to go back to my village in less than a week after I’d returned.

I returned three months later and one week after that again thought of paanwala Sunil. There were two reasons for thinking of him: the first was a curiosity about how his wife was faring and how his kids’ studies were coming along. The second was more important and more decisive, and it was this: I couldn’t find paan that tasted the same or as good as paan made by any paanwala other than Sunil.

Before he handed over the paan to eat, Sunil used to reach for a water bottle kept underneath his kiosk. ‘Clean out that mouth, take a nip of the water of brotherhood, and then have yer paan!’ Then again came the endless streak of cursing and swearing.

This kind of language enchants me. I’m always thinking, how can I include and incorporate this kind of foul language in the literature and dictionaries of ‘Hindi’ – this National/ Indian/ Neo-Sanskritised tongue? The question’s knotty and it vexes me and I’ve been scratching my head over it for the past thirty years. And whenever I’ve made some attempt in my stories or poems and have used some colourful invective, either fully above board in the words themselves, or in hidden meaning below the surface – the attacks begin. Freelance work is snatched away. The rumours spread and I have to wait once again for the right time.

Wait for the right time and the opportunity when I can openly use colourful, dirty, enchanting language in my work at will, and from top to bottom.

So that’s why I set out to find Sunil’s new setup, and find him I did. He was now in Sector 13 – having greased the palms of the police and the municipality, he’d thrown together a new place on the sidewalk.

He was very happy to see me after so long. I rinsed my mouth and then drank from his water bottle of brotherhood. I ate paan crafted by his hands. The gang was back together; everything is as it was; nothing had changed. Sunil’s wife still had asthma. He was trying everything from allopathy to ayurveda to spells and magic to herbs and balms and spices to help her recover. His kids were still going to school. And he still let loose foul word after foul word when it came to school, bussing, petrol companies, government, the police – no one escaped. In the meantime, there had been some election where he’d voted for a candidate from his own caste, but now Sunil cursed him, too, since when he went to apply for his sidewalk vendor’s licence the politician’s assistant squeezed him for twenty thousand. And as he cursed him, he vowed never to vote for a caste-brother again, since the bastards turn into fuckers after they’re sworn in.

We laughed at his cursing, hiding our own profanities behind laughter with practised skill.

And then one morning, everyone in stitches, Judge Sa’b suddenly came to mind: when he laughed uncontrollably with a mouthful of paan he’d dribble on his shirt and rubbed chuna on the red spot.

I thought of that day searching for his missing boy, Parthiv, and asked Sunil about Judge Sa’b.

What Sunil told me is the final part of this story.

After I’d gone abroad – in other words, about a week after Parthiv was found safe – Judge Sa’b went to Sunil’s one morning wearing the same old outfit and informed him that his judgeship was very close to being restored, but he needed to go to Jhansi to organise some money. He was walking on air and said that within a couple of weeks he’d come back from Jhansi with the cash he needed.

He asked paanwala Sunil for a loan of six thousand rupees.

Sunil didn’t have it so he somehow got the six thousand from some lenders and took a loan with a month’s interest and gave it all to the judge.

Forget about two weeks – Judge Sa’b wasn’t back even after two-and-a-half months. The lenders piled on interest every day and by then Sunil was piling on invective aimed toward Judge Sa’b. He’d given Sunil his mobile number and address in Jhansi, but every time he dialled the number he heard the ‘this mobile has been switched off’ message.

Judge Sa’b was an asshole, a bastard, and now the paanwala too had been nearly rubbed out like a stain with chuna. Sunil spoke, everyone laughed like before, hiding their own oaths inside their own artifice.

After interest compounded onto interest and it grew to be too much, the lenders filed a complaint with the police; the police came, they hauled away his kiosk to the station, and then Sunil went to Jhansi to look for the Judge.

Once in Jhansi, Sunil spent eight hours searching for Judge Sa’b’s house. As he wandered, he was told by various people on more than one occasion that the address might be phony; hearing this, Sunil, who had only been once or twice to unfamiliar cities like Jhansi where he was now for the first time, began to cry. Even there, all alone, and through his tears, he let fly the full complement of curses and oaths and bile.

But there wasn’t the same Vaishali gang in Jhansi to laugh along with him.

Finally, seven kilometres outside of town, he came to the neighbourhood and the house whose number Judge Sa’b had written down on his old letterhead, the old letterhead from when he’d once been a judge, with the government emblem of the three-headed lion on top.

But a padlock was hanging on the door of the house. A sealed, government lock.

The blood drained from Sunil’s face.

A neighbour, in no more than a few, quite ordinary sentences, recounted what had happened, his face as expressionless as a piece of wood, as if he had the face of a marionette.

‘The person living here committed suicide along with his family. Two months ago. The police have sealed the house. No family member has come here yet.’

Sunil was first in shock, and then he wept, and then came choice oaths that tickled the marionette-faced man’s funny bone, a laughter that was not hidden behind any artifice.

Sunil left for his home village, and his father – for whom he’d spent seventy thousand rupees on his back treatment and on whom he waited hand and foot for eight months – made him sign an affidavit on paper with the rotary seal in order to borrow ten thousand with an interest rate of 50 per cent. From that loan Sunil used seven thousand five hundred for the lenders and two thousand for the police and municipality so that he could retrieve his kiosk and resume his sidewalk business.

Telling this story, Sunil again spewed invective: I laughed, and everyone in our gang did, too, except this time I was the one dribbling red paan juice onto my shirt and I was the one asking for the chuna to rub on the spot so the stain wouldn’t set.

And then I realised that the shirt that I was wearing and wore all the time was almost thirty years old.

You probably remember that I told you about Judge Sa’b’s two addictions or vices that were the reason we two had come together. One was paan, the other chewing tobacco. And then I said that he had a third vice that I’d tell you at the very end of the story.

His third vice or addiction was life.

The vice of coming through alive no matter what.

Sunil, the others gathered there, and everyone in that little group suffered from the same addiction, but none were afflicted with cancer because of it. It’s not like smoking or chewing tobacco or gutka that can take your life.

 

 

‘Judge Sa’b’ was selected by Daniel Medin for inclusion in the January 2015 Translation Issue of the White Review.

 

Uday Prakash is a contemporary Hindi poet, scholar, journalist, translator and short-story writer. He was a recipient of the Sahitya Akademi Award for his collection of short stories Mohan Das; he returned the award in 2015 in response to the murder of scholar M.M. Kalburgi.

Jason Grunebaum is a fiction writer and translator. His books include The Girl with the Golden Parasol (Yale University Press) and The Walls of Delhi (Seven Stories Press), both translated from the Hindi of Uday Prakash, and Manzoor Ahtesham’s The Tale of the Missing Man (with Ulrike Stark). His work has been shortlisted for the DSC Prize in South Asian Literature and longlisted for the National Translation Award. He is senior lecturer in Hindi and a member of the Committee on Creative Writing at the University of Chicago.